पाश्चात्य देशों में क्रिसमस डे के बाद सबसे ज्यादा उत्साह वेलेंटाइन डे यानी १४ फरवरी को देखने को मिलता है । वेलेंटाइन डे से हमारा कोई लेना-देना नहीं और न ही यह हमारी संस्कृति है, फिर भी पाश्चात्य देशों में मनाया जाने वाला वेलेंटाइन डे भारतीय उपमहाद्वीय में भी लोकप्रिय होने लगा है । जैसे-जैसे इसका प्रचार हुआ है, इसकी मुखालफत में स्वर भी मुखर हुए ।
वेलेंटाइन डे मनाने के तरीके को लेकर ही हमारे देश में विरोध होना शुरू हुआ । वेलेंटाइन दे मनाने के नाम पर जो अश्लीलता और भौड़ा प्रदर्शन होता है वह हमारी संस्कृति नही है । इस तरह की प्रवृत्ति हमारी सभ्यता के खिलाफ है । हिंदुस्तानी होने की पहचान ही हमारी सभ्यता है । हिन्दुस्तानी स्कृति में वसुधैव कुटुंबकम सर्वोपरि है । ‘प्यार बांटते चलो’ की राह हमने दुनिया को दिखाई है । मगर प्यार के नाम पर भौंड़ा प्रदर्शन हमने कभी नहीं किया । हमें प्रेम दिवस मनाने में ऐतराज नहीं है । ऐतराज उसके तरीके से है । मौलवी हो या संत, फकीर हो या फादर हम हिन्दुस्तानी हर किसी का आदर करना जानते हैं ।
हमारी संस्कृति हमें ‘स्वयं को तिल-तिल जलाकर सलभ और सुलभ बनना सिखाती है । ‘समर्पण की शिक्षा देती है । प्यार में भी समर्पण है और हमारा जीवन इसी प्यार पर टिका है । हालांकि जिस प्यार पर जीवन आधारित है, वह वेलेंटाइन डे का एक दिवसीय प्यार नहीं हो सकता । प्यार, इश्क और मोहब्बत किसी के लिए खुदा है तो किसी के लिए दिल का सुकून, किसी के लिए जिन्दगी है तो किसी के लिए जीने का सहारा । तभी तो कहा गया ‘दिल की लगी क्या जाने, ऊंच-नीच और रीति-रिवाज, घर बिरादरी और लोक लाज ।’ वेलेंटाइन डे के नाम पर जो प्यार युवाओं में उमड़-उमड़कर पार्कों, सड़कों, सिनेमा हॉलों और मॉल में दिखाई देता है, उसका विरोध लाजिमी है । वेलेंटाइन डे में प्यार नहीं वासना ज्यादा होती है । उसमें दिखावा होता है और जहां दिखावा है वहां स्वाभाविक प्यार हो ही नहीं सकता । ऐसे प्यार में स्वार्थ की दुर्गध आती है इसलिए भारत इसका विरोध करता है । दरअसल वेलेंटाइन डे सोच उपभोक्तावादी संस्कृति का परिणाम है । यह पांच ‘म’ पर आधारित है । ये पांच ‘म’ हैं- मद्य, मीन, मुद्रा और मैथुन ।
अभी हाल में सोशल नेटवर्किग साइट फेसबुक ने एक सर्वे कराया । सर्वे के आधार पर ब्रिटिश पत्रकार डेविड कांडेलेस ने एक रिपोर्ट तैयार की । रिपोर्ट में यह बात उभर कर सामने आई कि वेलेंटैअन डे के बाद सबसे ज्यादा रिश्तों में बिखराव आया, ब्रेकअप हुए । यह कैसा प्रेमोत्सव है जो रिश्तों में बिखराव लाता है । इसे हम क्यूं मनाएं । वैसे भी हमारी संस्कृति में प्यार के त्योहारों की कोई कमी नहीं है । संत वेलेंटाइन ने तो परिवार के सदस्यों के आपसी रिश्ते की मजबूती और विवाह जैसी संस्था के लिए संदेश दिया था । आजकल इसके नाम पर भौड़ा प्रदर्शन हो रहा है । इससे हमारी भारतीय छवि प्रभावित हो रही है । इससे समाज में विकृति भी फैलने लगी है । जिस त्योहार से समाज को कोई सीख न मिले, उलटा उससे समाज पर प्रतिकूल असर पड़े उसक तो न मनाना ही हितकर है । हो सकता है कि नई पीढ़ी के तथाकथित आधुनिक युवाओं को इस बात में बुजुरा खयालात नजर आएं, मगर यह एक सच्चाई है जिसे देर सवेर वह भी मानेंगे लेकिन तब तक देर हो चुकी होगी ।
युवाओं में 14 फरवरी को वेलेंटाइन डे के दिन प्यार उमड़-उमड़ कर आ रहा होता है । यह बाजारवाद का प्रभाव है । इसमें समर्पण का वह भाव नहीं दिखता जो रिश्तों को स्थायित्व प्रदान करे । हमारी परम्परा में प्यार 24 घंटे, सातो दिन और जीवनभर ही नहीं जीवन पर्यन्त शामिल है । वेलेंटाइन डे की संस्कृति को बलपूर्वक बढ़ावा बाजार दे रहा है । बाजार को मालूम है कि भारतीय उपमहाद्वीप में युवाओं की संख्या ज्यादा है और अगले पांच दशक तक यह संख्या बनी रहेगी । इसलिए बाजार उन्हें फुसलाने का काम कर रहा है । हमारे जीवन का आधार हमारा प्यार है जिसे हम अनमोल मानते हैं । बाजार उसे वेलेंटाइन डे के माध्यम से बिकाऊ बनाता है ।
बाजार हर चीज को भुनाता है । वेलेंटाइन डे के नाम पर प्यार को भुनाने की कोशिश की जाती है । यूएस ग्रीटिंग कार्ड के आंकलन के मुताबिक पूरे विश्व में एक बिलियन कार्डों की बिक्री अकेले वेलेंटाइन डे के समय होती है । उपहार, फूलों का बाजार इतना बढ़ा है कि उसका आंकलन कर पाना मुश्किल है । केवल अपने देश में फूलों व उपहारों का व्यापार १५ करोड़ से ज्यादा है । आप भले ही प्यार करने की कला और शब्द जाल का प्रयोग करना न जानते हों, आप आकर्षक न भी हों फिर भी समर्पण वह कला है जो इन तमाम झंझावतों से इतर वेलेंटाइन डे पर भारी पड़ती है । अगर आप किसी के प्रति समर्पित हैं तो एक न एक दिन उसका प्यार आपको मिलेगा । साल के 365 दिन हमारे लिए प्यार के ही दिन है, फिर वेलेंटाइन डे मनाने कि क्या जरूरत ।